It's Really

तस्वीरें सिंध वाले 'थर' से आई हैं लेकिन हमारे मारवाड़ वाले 'थर' (Thar desert) के लिए भी प्रासंगिक है. इसी प्रासंगिकता के चलते तस्वीरें शेयर भी कर रहा हूं. तस्वीरों में देसी बबूल, कैर, फोग, खींप, कुम्मट आदि पेड़-पौधों के फूल हैं. कभी इन्ही पेड़-पौधों के आसपास 'थर/थळ/मालाणी/सांचौरी' का जीवन था.

वक़्त बदला, सिंचाई के साधन और तरीके बदले, जरूरतें बदलीं, पेड़ बदले, पौधे बदले, फूल बदले. अब कहीं-कहीं रोहिड़े के फूल जरूर नजर आ जाते हैं लेकिन फोग, खींप, कैर, कुम्मट आदि के फूल निरंतर गायब हो रहे हैं क्योंकि ये पेड़-पौधे ही जो गायब होने लगे हैं. इनमें भी सबसे ज्यादा मार पड़ी है 'देसी बबूल' पर. वो अब विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुका है. (फूलों की तस्वीरों में सबसे पहले इसी का फूल).

वक़्त के साथ बदलाव आना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन यह बदलाव कम नुकसान ज्यादा था/है. और इस नुकसान के लिए एकमात्र जिम्मेदार चीज है 'विलायती बबूल'. जिसका वैज्ञानिक नाम है 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा'. बहुत ही तेजी से फैलने वाली इस विलायती प्रजाति ने 'थर/थळ/मालाणी/सांचौरी' के पारिस्थितिक तन्त्र के साथ जो खिलवाड़ किया है उसकी भरपाई दूर-दूर तक नजर नहीं आती.

सबसे पहले बात इस विलायती प्रजाति के भारत आगमन की. बताते हैं कि मैक्सिको के इस मूल निवासी 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' ने ठीक उसी साल हिंदुस्तान में दस्तक दी जिस साल आजादी की पहली क्रांति हुई थी. साल 1857 में अंग्रेज 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' को लैटिन अमेरिका के देशों से भारत लाए. पहला पौधा कहां रोपा गया इसकी जानकारी मुझे नहीं मिली लेकिन रिकार्ड्स के मुताबिक रेगिस्तान में हरियाली फैलाने की मंशा के साथ 1870 के दशक में अंग्रेजों ने इसके बीजारोपण की एक पुख्ता योजना बनाई. इसी योजना के मुताबिक साल 1877 में सिंध में इसका व्यापक पैमाने पर बीजारोपण/वृक्षारोपण शुरू किया गया. खास तौर पर रेतीले थरपारकर जिले में.

हालांकि सिंध से ही सटे हमारे मारवाड़ में इसने बहुत बाद में दस्तक दी. सन 1913 में तत्कालीन जोधुपर महाराजा इसके बीज मारवाड़ लाये. (बताते हैं कि जोधपुर महाराजा 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' के बीज ऑस्ट्रेलिया से लाए थे. भारत की तरह ऑस्ट्रेलिया में भी अंग्रेजों का साम्राज्य था और वहां पर भी 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' अंग्रेज ही लेकर गए थे). 

सूखे और बंजर मारवाड़ में 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' के शुरुआती नतीजे फलदायक थे. इसकी हरियाली और फलियों से बाद के महाराजा जोधपुर इतने आकर्षित हुए कि 1930 के दशक में बाकायदा हवाई जहाज से मारवाड़ (वर्तमान के जोधपुर, नागौर, पाली, जालौर, बाड़मेर जिले शामिल) में बड़े भूभाग में इसके बीज बरसाए. हवाई जहाज उड़ाने के बेहद शौकीन महाराजा उम्मेद सिंह दो सीटों वाले अपने De Havilland DH82 Tiger Moth एयरक्राफ्ट में सवार होते और लगभग रोजाना मारवाड़ के अलग-अलग इलाकों में 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' के बीज बरसाते. साल 1940 में तो बाकायदा इसे जोधपुर स्टेट के ‘शाही वृक्ष’ का दर्जा दे दिया. साथ ही जोधपुर स्टेट की जनता को 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' की रक्षा के लिए एक फरमान भी जारी किया गया. इस फरमान का मतलब था कि, 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' यानि ‘विलायती बबूल’ को उगाया जाए, इसकी रक्षा की जाए और इसे काटने की तो कल्पना ही नहीं की जाए. (कुछ साल पहले 2006 में जोधपुर साम्राज्य की एक बड़ी निशानी “मेहरानगढ़ किले’ के आसपास से ‘विलायती बबूल’ के सफाए की बड़ी जिम्मेदारी खुद भूतपूर्व राजपरिवार ने मशहूर प्रकृतिवादी प्रदीप कृषण को सौंपी). 
 
कुछ बरसों बाद देश आजाद हुआ, नए भारतीय गणतंत्र के शासकों को भी इसके दुर्गुण नजर नहीं आए. नए शासक भी बबूल की एक और विदेशी प्रजाति रेगिस्तान में ले आए. ये था इजरायली बबूल (वैज्ञानिक नाम Acacia Tortilis) जिसका राजस्थान में 1958 में शुरू हुआ वृक्षारोपण अगले कई दशकों तक जोर-शोर से जारी भी रहा. हालांकि मैक्सिको वाले बबूल की तुलना में इजराइल वाले बबूल ने कोई बड़ा नुकसान नहीं किया, लेकिन कोई खास फायदा भी नहीं. काश, यही कोशिश रोहिड़े औरर खेजड़ी को लेकर की जाती तो राजस्थान की क्या तस्वीर होती.

खैर बात 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' की हो रही है. कभी हरियाली बढ़ाने के मकसद से लाया गया यह 'विलायती बबूल' रेगिस्तान में नासूर बन चुका है. आज न सिर्फ राजस्थान बल्कि लगभग पूरे भारत में 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' का कब्जा है. कच्छ से लेकर ओडिशा और पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक इसका साम्राज्य है. राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में इस ‘विलायती बबूल’ का सबसे ज्यादा प्रकोप है लेकिन आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, हरियाणा, दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी इसने जबरदस्त वंशवृद्धि कर ली है. इतना ही नहीं इथियोपिया, केन्या, नाइजीरिया, सूडान, सोमालिया, सेनेगल, साउथ अफ्रीका समेत अफ्रीकी महाद्वीप के कई देश, श्रीलंका, मिडल ईस्ट के कई देश और दक्षिण-पश्चिम अमेरिका (USA) का बड़ा इलाका इस खतरनाक आक्रमणकारी प्रजाति की चपेट में है.

साफ है, कोई-सा भी धरातल, कोई-सी मिट्टी, कोई-सा मौसम हो. पहाड़ हो, मैदान हो या फिर तटीय इलाके. बंजर, लवणीय या फिर क्षारीय मिट्टी हो, सब जगह ‘प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा’ पनप जाएगा. 

‘प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा’ के नुकसान ही नुकसान हैं, फायदा तो दूर-दूर तक नजर नहीं आता. यह कांटेदार विलायती बबूल न तो लोगों के उपयोग का है, न ही दूसरे जीव-जन्तुओं के लिए अनुकूल. इसके फूल और फल (अंतिम दो तस्वीरें) किसी काम के नहीं हैं.

यह न सिर्फ देश की जैवविविधिता के लिए बड़ा खतरा है बल्कि पर्यावरण पर भी बोझ बन गया है. जिस जमीन पर यह पैदा होता है वहां कुछ और पनपने नहीं देता. इसकी एकाधिकार प्रवृत्ति का ही नतीजा है कि विलायती बबूल भारत में पेड़-पौधों की लगभग 500 देशी प्रजातियों को खत्म कर चुका है, जिनमें अकेले राजस्थान से ही करीब 300 प्रजातियां शामिल हैं. पर्यावरण की शुद्धता की दृष्टि से भी ये कोई फायदेमंद नहीं है क्योंकि इसकी पत्तियां छोटी होती हैं जिसके चलते यह बहुत कम कार्बन सोखता है.

इस विलायती बबूल ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है घास के मैदानों को. इस मामले में कच्छ का मशहूर 'बन्नी ग्रासलैंड' और मेरे गांव के पास के ही ‘हाथमताई जोड़’ और ‘जुंजाणी जोड़’ सबसे सटीक उदाहरण हैं. एशिया के सबसे बड़े ग्रासलैंड माने जाने वाले बन्नी में रण के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1980 के दशक शुरुआती सालों में 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' का बीजारोपण किया गया. देखते ही देखते इसने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया. आज बन्नीवासियों के लिए विलायती बबूल सबसे बड़ी चुनौती है. (घूमने-फिरने के शौकीन लोगों को मेरी सलाह कि एक मर्तबा उन्हें बन्नी जरूर जाना चाहिए. मुझे बेहद लगाव). कुछ ऐसी ही कहानी थार मरुस्थल की भी है. विलायती बबूल लगाया तो गया था रेत के टीलों को काबू करने के मकसद से लेकिन अब यह इंसान के काबू से भी बाहर हो चुका है.

'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' का यह ‘बेकाबूपन’ इसके प्रचलित नामों से भी साफ तौर पर झलकता है. जैसे कि मारवाड़ में इसे ‘विलायती बावलिया’ या ‘अंग्रेजी बावलिया’ (‘बावला’ से बना ‘बावलिया’, और ‘बावला’ का मतलब ‘पागल’), गुजरात में ‘गांडो बावल’ (‘गांडो’ का मतलब ‘पागल’), हरियाणा में विलायती खेजड़ा. दूसरी भाषाओँ में भी कुछ ऐसे ही नाम.

ऐसा नहीं है कि इसके उन्मूलन के प्रयास नहीं हुए हो. लेकिन सरकारी मशीनरी की इच्छाशक्ति इस 'बावलिए' की शक्ति के सामने कहीं टिक नहीं पाती. पहली बात तो इसे जड़ से उखाड़ना बेहद कठिन, दूसरा इसके असंख्य बीज होते हैं जो पेड़ों की नई फौज खड़ा करने में कोई ज्यादा वक्त नहीं लगाते. हमारे पड़ोस के ‘हाथमताई-जुंजाणी जोड़’ में कुछ साल पहले 'बावलिए' को नेस्तनाबूद कर उपयोगी 'धामण' घास को फिर आबाद किया गया लेकिन पिछले दिनों मैंने खुद यहां 'बावलिए' के जबरदस्त पलटवार को देखा है. राजस्थान में सांचौर इलाके के काछेला गांव में 'बावलिए' से कोयला बनाने का एक प्लांट भी कई सालों से लगा हुआ है लेकिन यह 'ऊंट के मुंह में जीरे' के समान ही है.

अगर इसे समय रहते नहीं मिटाया गया तो देशी पेड़-पौधों की रही-सही प्रजातियां भी खत्म हो जाएंगी. शुष्क क्षेत्रों में बचा-खुचा पानी भी सोख लिया जाएगा. साथ ही वायु प्रदूषण भी. मैं तो इस ‘समय रहते’ प्रलाप से इतर दावा करता हूं कि ‘बावलिए’ के मामले में समय निकल चुका है. यहां ताज्जुब की बात कि राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में हरियाली फैलाने का जिम्मा उठाने वाले भारत सरकार के संस्थान ‘काजरी (CAZRI)’ के वैज्ञानिक अब भी इसके फायदे की ही बात कर रहे हैं. (जोधपुर स्थित ‘काजरी’ में 2011 में आयोजित एक सेमिनार की तस्वीर यहां संलग्न) 

मैं बचपन से ही ‘विलायती बावलिए’ का घोर विरोधी रहा हूं. कभी मेरे पिताजी ने हमारे एक खेत में ‘विलायती’ के दो पेड़ लगाए थे लेकिन ज्योंही परिवार में मेरी थोड़ी-बहुत पूछ बढ़ी तो मैंने इन दोनों पेड़ों को तुरंत कटवा दिया. हां, मेरा बरसों से एक ड्रीम प्रोजेक्ट रहा है कि मारवाड़ में ‘विलायती बबूल (बावलिया) हटाओ’ का एक अभियान चलाया जाए. लेकिन ‘बावला’ शहरी जीवन है कि इजाजत ही नहीं देता.

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